Sunday, September 25, 2011

सुनहरी तितली


बागीचे में एक प्यारी सी तितली उड़ती दिखाई दी,

कितनी सुन्दर थी, पीले पंख थे ,

जैसे सोने से बने हो,

भूरे-भूरे प्यारे दो धब्बे थे जैसी

किसी हसीं की कातिल आँखें हो,



सुनहरी तितली पे दिल हार के,

उसे पकड़ने के दौड़ लगाई,सब कुछ भूल के,

हाथ में तो आ गई ,गिरा मैं घुटने के बल,



चोट लगी मुझे कस के,घुटने भी छिल गए,

तितली भी पंख फैला के उड़ गई हाथ से,

आँखों में दर्द से आंसू आ गए,

लेकिन होठों पे मुस्कान थी,



तितली अब मेरे पास नहीं, सोना अब मेरे साथ नहीं,

मेरे हाथों में अब तक उसका एहसास है,साथ बिताया लम्हा उसके ,

वो कुछ ख़ास है,आँखों से दूर ही सही,दिल के पास है,



अपने पंख फैला के वो उड़ते जा रही है,

दूर चली जा रही है, मेरा ह्रदय संग लिए जा रही है.



इक दिन फिर, बागीचे में एक प्यारी सी तितली उड़ती दिखाई दी,

हमने उससे कहा हमने अब तितलियों का पीछा करना छोड़ दिया है.

क्योंकि तितलियों के पीछे भागते भागते गिरते है,

चोट बदन में लगती है, दर्द दिल में होता है.